सीमाओं का संतुलन: न्यायिक सक्रियता और संवैधानिक मर्यादा पर पुनर्विचार आवश्यक

– विशेष आलेख | समकालीन विमर्श

भारत का संविधान तीन प्रमुख स्तंभों – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – के बीच शक्ति के संतुलन की परिकल्पना करता है। परंतु हाल के वर्षों में न्यायपालिका की बढ़ती सक्रियता ने इस संतुलन को एक नई दिशा दे दी है। सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों और टिप्पणियों, विशेष रूप से राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को दिए गए निर्देशों, ने यह सवाल खड़ा कर दिया है – क्या न्यायपालिका अपनी सीमाएं लांघ रही है?

न्यायिक सक्रियता: एक ज़रूरत या अतिक्रमण?
न्यायिक सक्रियता का जन्म सामाजिक न्याय की खोज से हुआ। जब विधायिका या कार्यपालिका नागरिकों के अधिकारों की उपेक्षा करती है, तब न्यायपालिका एक संरक्षक के रूप में सामने आती है। किंतु जब न्यायपालिका स्वयं नीति निर्धारण या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगे, तो यह संविधान की मूल भावना पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को संबोधित निर्देशों ने न्यायिक सक्रियता की सीमाओं की चर्चा फिर से प्रारंभ कर दी है। राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य का सर्वोच्च संवैधानिक पद है और वह मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं। न्यायालय का ऐसा कोई निर्देश, जिसे मांगा न गया हो, संविधान के अनुच्छेद 74(1) की भावना का उल्लंघन माना जा सकता है।

न्यायपालिका की सीमाएं: एक संवैधानिक विवेचना
संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांग सकते हैं, परंतु यह एक वैकल्पिक प्रक्रिया है और उसमें भी न्यायालय की सलाह बाध्यकारी नहीं होती। ऐसे में न्यायालय का स्वतः निर्देश देना या ‘नैतिक शिक्षा’ देना, लोकतंत्र की संस्थागत गरिमा को आहत कर सकता है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति: पारदर्शिता की आवश्यकता
इस बहस का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़ा है। कोलेजियम प्रणाली पर लंबे समय से यह आरोप लगते रहे हैं कि यह पारदर्शी नहीं है। जब न्यायपालिका में नियुक्तियाँ योग्य और विविधतापूर्ण न हों, तब यह न केवल न्याय की गुणवत्ता को प्रभावित करती है, बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी असर डालती है। क्या हालिया निर्णयों और टिप्पणियों की पृष्ठभूमि में न्यायिक क्षमता और संतुलन की कमी दिखाई देती है?

क्या भारत संवैधानिक संकट की ओर बढ़ रहा है?
जब कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अपने-अपने दायरे से बाहर आकर एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगें, तब एक संवैधानिक टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। यदि यह स्थिति लंबी चली, तो देश एक संवैधानिक संकट की ओर भी बढ़ सकता है। लोकतंत्र में हर संस्था की गरिमा है, और उसे उसी दायरे में रहकर कार्य करना चाहिए।

न्यायिक सक्रियता लोकतंत्र की ताकत तब तक है जब तक वह मर्यादा में रहे। परंतु जैसे ही यह सक्रियता अतिक्रमण का रूप ले लेती है, यह स्वयं संविधान के लिए चुनौती बन जाती है। न्यायपालिका की भूमिका जनता के अधिकारों की रक्षक की होनी चाहिए, न कि नीति निर्माता की। इसके साथ ही, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी, उत्तरदायी और निष्पक्ष बनाना आज की महती आवश्यकता है।

भारत का लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब तीनों स्तंभ – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – एक-दूसरे के पूरक बनें, प्रतिस्पर्धी नहीं।

 

अस्वीकरण  : यह आलेख समकालीन संवैधानिक विमर्श का प्रतिनिधित्व करता है और पाठकों को लोकतंत्र की जड़ों को समझने की एक विनम्र कोशिश है।

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